बेगारी से प्रणाम: अश्रद्धा और अपेक्षाओं की वास्तविकता

बेगारी से प्रणाम: अश्रद्धा और अपेक्षाओं की वास्तविकता

एक बार का मैं अपना अनुभव बताऊँ अपने छुटपन का। मैं छोटा सा जब था तो हमारे गाँव में एक पर्व होता है नवान्न का। नया अन्न जब पैदा होता है तो उसको गाँव वाले खाते हैं और उत्सव मनाते हैं थोड़ा सा और ब्राह्मणों को दक्षिणा देते हैं। ब्राह्मणों के पास जाते हैं, उनको प्रणाम करते हैं, दक्षिणा देते हैं। तो मैं छत पर टहल रहा था और एक अहीर शूद्र आया और मेरी ओर देखकर कहता है महाराज ! पाय लागी, उसने हाथ भी ऐसे नहीं जोड़ा। हाथ बिल्कुल सीधा है, महाराज ! पाय लागी। तो हमने कहा अच्छा अच्छा। तो शिकायत किया उसने हमारी माँ से कि हमने प्रणाम किया, हमको आशीर्वाद नहीं दिया, अच्छा अच्छा कह दिया। यानी उनका जिस बेगारी के ढंग से उन्होंने प्रणाम किया, उसमें वह आशा करते थे कि उनको हम बैकुण्ठ का साम्राज्य दे दें। हाँ तो यदि हमारी डिमाण्ड, हमारी माँग सही नहीं होगी, तो हम कैसे आशा करते हैं कि हमको सबसे बड़ी चीज मिल जायगी। इसलिये उसी माँगने को ठीक करने के लिये साधना भक्ति, भाव भक्ति है। वह माँगना ठीक हो जाय, यानी 'ही' लग जाय 'मामेकं शरणं ब्रज।' केवल मेरी ही शरण में।

Source: Niskaam prem - 69

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