टूटे हुए शीशे से भक्ति: सच्ची श्रद्धा की शिक्षा

टूटे हुए शीशे से भक्ति: सच्ची श्रद्धा की शिक्षा

मैंने लड़कपन में, जब मैं लगभग सोलह वर्ष का था, तो मैं चित्रकूट में गया था। एक शरभंग आश्रम है। उस समय घोर जंगल था वहाँ, अब तो रोड वगैरह बन गया है, शेर-चीते रहते थे। तो वहाँ मैंने एक ऐसे ही साधारण-सी, पत्ते की बनाई हुई कुटी में एक बाबा जी को देखा। वो बाबा जी एक टूटा हुआ शीशा लिये हुए अपना मुँह देखते थे और एक टूटा हुआ कंघा वो पता नहीं कितने साल पुराना था, उससे बाल काढ़ते थे और फिर यों (इधर उधर व्याकुलता से) देखकर रोने लगते थे। मैं छुप के देखता रहा, फिर उसके बाद जब वो नॉर्मल हो के बैठे तो मैंने बात किया। समझ तो गया था, एक्टिंग में पूछा कि, "बाबा जी ! आप ये क्या कर रहे थे?" उन्होंने कहा, "बच्चा ऐसा है कि प्रियतम आते होंगे। तो इसलिये मैं बाल-वाल ठीक करता हूँ और फिर भी नहीं आते। वो आयेंगे अचानक और हम खराब हालत में होंगे तो उनको सुख नहीं मिलेगा इसलिए मैं दिन भर कंघा करता रहता हूँ और उनको देखता रहता हूँ, बाट जोहता रहता हूँ।" अब सोचिये आप लोग, यह भक्ति कहाँ लिखी है? कौन से ग्रन्थ में ऐसी भक्ति लिखी है? शीशा कंघा से भक्ति होती है? अब अगर कोई आदमी मूर्ख देख ले उनकी झाँकी को तो कहेगा फुल मैड है, हाफ नहीं है। बताओ, शीशा देखता है। जंगल में यहाँ रहने आया है और शीशा-कंघा लिये है, ये इसकी उपासना हो रही है। पता नहीं, क्या समझता है अपने को ? शीशा देखता रहता है दिन भर।

Source: Narad Bhakti Darshan - 107

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