उच्चारण की भ्रांति से परे: 'तत्त्वमसि' की सच्ची समझ की सीख

उच्चारण की भ्रांति से परे: 'तत्त्वमसि' की सच्ची समझ की सीख

एक बार मैं रायगढ़ में प्रवचन दे रहा था। वहाँ एक महिला आई उसके साथ बीस पच्चीस महिलायें थीं। बड़ा उसका प्रचार वगैरह था वहाँ। लोगों ने कहा एक माताजी आ रही हैं। ब्रह्मानन्दी उनका नाम हैं। आईं सामने बैठीं बड़ी अकड़ कर। तो हमने पूछा तुम क्या करती हो ? तो उन्होंने कहा ब्रह्मज्ञान का उपदेश करती हूँ। अरे हमने कहा क्या उपदेश करती हो ? कि लोगों को जप करना बताती हूँ। क्या जप करना बताती हो ? उन्होंने कहा - 'तत्तुमसी।' मैंने कहा तत्तुमसी क्या चीज है? ईसामसीह तो सुना था मैंने। कहें आपको नहीं मालूम है? हमने कहा नहीं। मैंने कहा बता दो, कहाँ लिखा है? ये कौन से वेद में, कौन से उपनिषद् में, कौन से ग्रन्थ में है ये? चलो जी, शिष्यों को इशारा किया और चली गईं। वो जो वेदमंत्र है एक न 'तत्त्वमसि' उसी को तत्तुमसि बोल रही थी, बेपढ़ी लिखी थी ऐसे ही। तू ब्रह्म है, 'तत् त्वं असि, तत्त्वमसि'। एक ये उपनिषद् का मंत्र है। उसको गुरुजी ने मान लो सही ही बताया हो तो वो अपना याद करते करते गलत हो गया। ऐसे ज्ञानी हैं हमारे देश में। जहाँ देखो हाँ, झुण्ड है संन्यासियों का। ये सब निराकार ब्रह्म के उपासक हैं। शब्द का अर्थ नहीं मालूम कि निराकार बोलना चाहिये कि निरंकार बोलना चाहिये।

Source: Main kaun mera kaun 2 - 493

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