पान विक्रेता को भुगतान: प्रतिष्ठा की भ्रांति

पान विक्रेता को भुगतान: प्रतिष्ठा की भ्रांति

इसी प्रतापगढ़ में एक बार मैं, बहुत पुरानी बात है, तीस साल पुरानी, हमारे साथ कई ऑफिसर थे, मुन्सिफ थे, सिविल जज थे, कोर्ट इन्सपेक्टर थे पुलिस के और डिप्टी कलेक्टर थे, कार में जा रहे थे घूमने। दो कारें। ऐसे ही अनावश्यक चल दिये बस। लड़कपन बहुत था, उस समय में हमारे अन्दर, वो लोग कोर्ट से आये हमारे पास सीधे। हमने कहा चलो घूमने। उन्होंने कहा चलिए महाराज जी। किधर चलें। जिधर चाहो, उधर चलो, चलो बस। पन्द्रह बीस मील गए तो हमारा पनडब्बा लाना वो लोग भूल गये थे जल्दी-जल्दी में। तो हमने कहा पान निकालो भई। पान खायेंगे। महाराज जी का पनडब्बा तुम लोग साथ नहीं लाये। सब एक दूसरे के ऊपर आक्षेप करने लगे। तुम बाद में आये थे, तुमको लाना चाहिए था, पनडब्बा तुम्हारे पास था तुमने क्यों नहीं उठाया। खैर हमने कहा- चलो ये दुकान सामने है लगवा लो। पान लगवाया गया। चार छः पान हमारे लिए लगवाये गये और सबने भी पान खाये। ऑफिसरों ने भी जो खाते थे। बहरहाल उसका दस-बारह आने का बिल हो गया, सस्ते के जमाने में, पान वाले का। अब पैसा? सब कोर्ट से आये थे। एक के पास भी पैसा नहीं था, अब कहने के लिए सब बड़े-बड़े आदमी जिले के ऑफिसर्स थे सब। लेकिन अब एक के पास एक रुपया भी नहीं तो क्या किया जाय ? ड्राइवर से कहा ओ ड्राइवर ! पैसा है कुछ, मजबूरी है माँगना पड़ेगा। और उसके पास भी शायद चार आने-ऐसा ही कुछ निकला। बहुत थोड़ा सा पैसा था। वो पूरा नहीं हुआ। तो कोर्ट साहब (इन्सपेक्टर पुलिस को श्री महाराज जी प्यार से कोर्ट साहब बुलाते थे।) ने कहा आप लोग चिन्ता न करें। पान वाले से कहा कि देखो भई! ऐसा है हम पैसा फिर भेज देंगे, उसने कहा कि साहब ये नहीं चलेगा, पैसा फिर भेज देंगे। उसे क्या मालूम है कि ये हमारे बाप लोग हैं सब। अगर वो जान जाता कि इसमें एस.डी.एम. वगैरह सब हमारे ऐसे लोग हैं तब तो कहता साहब और लीजिए पान, और खाइये। तो पास में ही एक फ़र्लांग पर ही थाना था। तो कोर्ट साहब जो पुलिस के इन्सपेक्टर थे उन्होंने कहा-अच्छा जरा आप लोग पाँच मिनट ठहरिये मैं अभी दे देता हूँ पैसे। वो कोर्ट साहब गये थाने में! और दरोगा को बुलाया, सब-इन्सपेक्टर को और उससे कहा भई! जरा इधर आना। आए तो उनसे कहा- ये पान वाले को पैसा दे देना। दस आना पैसा इसका हुआ है। तो पान वाले ने देखा दरोगा जी आ रहे हैं। उसने कहा हुजूर। कोई बात नहीं। अब वो समझ गया कि ये दरोगा से ऊपर कोई लोग हैं, सलूट मार रहा है दरोगा, इसका मतलब ये बड़े हैं। तो हम अब खड़े हो गये, कार से उतर कर। हमने कहा कि नहीं ये नहीं चलेगा। ये दरोगा पैसा देगा इसको भला ? असम्भव। तो हमने कहा कि दरोगा जी आप इनको पैसा दे दीजिएगा और आप पैसा फिर लाइयेगा कोर्ट साहब के पास से। इनके घर पर आइयेगा आप। आप तो कोर्ट आते हैं न हमेशा। तो इनके पास से पैसा ले जाइयेगा। दरोगा जी कहें भला मैं कोर्ट साहब से पैसा लूँगा, दस आना क्या कीमत रखता है ? तो हमने कहा- हाँ! अगर कोर्ट साहब से तुम पैसा नहीं लोगे, तो तुमसे ये दुकानदार पैसा नहीं लेगा और हम अगले इतवार को फिर घूमने आयेंगे, तो पता लगायेंगे कि आपने पैसा दिया कि नहीं दिया। खैर ये तो नाटक फाटक था सब। मतलब ये कि कभी-कभी ऐसी सिचुएशन हो जाती है बड़े-बड़े पैसे वालों की कि दो-चार रुपये के लिए परेशान रहते हैं। लेकिन बैंक में रुपया जमा है एक लाख। एक करोड़ । बस बड़ा विभोर है। क्यों भई ! क्या बात है ? बड़े पैसे वाले हैं। कहाँ हैं? कागज पर। इतने में ही बड़ा विभोर है। बैंक में रुपया रखा है, शकल नहीं देख रहा है उस रुपये की, फिर भी विभोर है। तो संसारी वस्तुयें जो भी हैं, उनमें जहाँ भी हमारा अटैचमेन्ट है, उसका जो भी तरीका है वो तरीका सारा का सारा उधर डायवर्ट कर देना है। घुमा देना है। कोई नई चीज़ नहीं सीखना है।

Source: Jeev kunj bihari Prandhaan - 192

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