कर्म और ज्ञान का स्वरूप
- इच्छा से क्रिया तक का क्रम
- जैसे किसी को घड़ा बनाना है तो बहुत सी अपेक्षित वस्तुऐं चाहिए जैसे घड़ा बनाने वाला, घड़ा बनाने का सामान, घड़ा बनाने का ज्ञान, फिर घड़ा बनाने की इच्छा, फिर घड़ा बनाने का संकल्प, फिर घड़ा बनाने की चेष्टा, फिर घड़ा बनाने की क्रिया
- धर्म समझना और पालन करना असंभव
- १ स्त्री है पति ने कहा पानी लाओ, पति के बाप ने कहा चश्मा लाओ, पति की माँ ने कहा वो दूध उबल रहा है नीचे उतरो, अब किसकी सुने, पति की सुनना चाहिए लेकिन वो पति का बाप है पति के बाप का अपमान करोगी, हाँ ये भी ठीक है लेकिन बाप से ऊँचा स्थान माँ का होता है शतगुणा पितुः शतगुणा माता तो सास की बात पहले सुनो, हाँ येह भी ठीक है लेकिन वो सास का पति है, हाँ ये भी ठीक है, तो क्या करोगी बताओ मैं तो खड़ी रहूंगी ऐसे ही बस किसी को कोई सम्मान नहीं दूंगी, ये तो तीनों का अपमान हो जायेगा, इतना टेढ़ा है धर्म का विषय की कोई पालन भी करना चाहे तो अत्यंत दुष्कर है मनुष्य के लिए
- लोग अपनी बुद्धि के निश्चय के अनुसार धर्म मानते हैं
- १ बड़ा सुन्दर रोचक विचित्र वृतांत है भगवान राम ने मारीच से कहा क्यों रे तू धर्म के खिलाफ जिहाद छेड़ता है धर्म को होने नहीं देता जहाँ कहीं यज्ञ का प्रारंभ हुआ मारीच पहुँचा और सब खंड भंड कर दिया, सारे ऋषि मुनि योगी तपस्वी परेशान हैं और मारीच में पॉवर थी कोई फिजिकल पॉवर नहीं स्प्रिचुअल पॉवर थी अनलिमिटेड नहीं, लिमिटेड सिमित, स्प्रिचुअल पॉवर की भी तमाम लिमिटेशन होती है तो मारीच ने कहा की तुम बोलने वाले कौन होते हो जी मैं कुछ भी करूँ, बढ़िया उत्तर, अरे भई तुम हमारे कौन लगते हो तुमको हम गुरु तो मानते नहीं की तुम लेक्चर दो हमको और तुम फिजिकल बाप भी नहीं हो की भई बेटे के हित के लिए कुछ कह रहे है तुम होते कौन बोलने वाले, हमारी लंका के भी नहीं है कि भई ये तुम्हारे देशवासी है भाईचारे में कह रहे हैं, राम ने कहा ये सब तो नहीं है लेकिन मैं क्षत्रिय हूँ, क्षत्रिय है तो हुआ करे क्षत्रिय हमको इससे क्या मतलब, आप क्षत्रिय हैं हम राक्षस ये तो अपनी अपनी बात है कोई कुछ हो, नहीं नहीं वेद में लिखा है की क्षत्रिय का धर्म है की यज्ञादिकों को जो गड़बड़ करे उसको ठिकाने लगाओ वो अधर्मी है और अधर्मी के खिलाफ हमको खड़े होना है इसलिए मैं बोल रहा हूँ मेरा धर्म है क्षत्रिय धर्म है स्वधर्मे निधनं श्रेयः श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः (गीता ३-३५) अपने धर्म में मर जाना अच्छा है हम क्षत्रिय हैं अपने धर्म के लिए हम प्राण भी दे सकते है तो मारीच ने कहा अच्छा अच्छा अच्छा थोड़ा स्क्रू ढीला है आपका राम, हें मेरा स्क्रू ढीला है कैसे ? किसी पे आक्षेप लगाना बड़ा आसान है सिद्ध करो, हाँ मैं अभी सिद्ध करता हूँ आपने क्या कहा अभी ? मैंने ये कहा की मैं क्षत्रिय हूँ मेरा धर्म है अपने धर्म में मर जाना भी उच्च गति देता है ये शास्त्र वेद कहते हैं, हाँ तो राम तुमने अपना धर्म तो पढ़ा है थोड़ी अकल है तुम्हारे, जो सब धर्मों का अध्ययन करे वो बड़ा पंडित और जो केवल अपने ही धर्म को जानता हो वो छोटा पंडित, क्या मतलब ? मतलब तुमने राक्षस धर्म नहीं पढ़ा, जैसे तुम्हारा धर्म है सात्विक हमारा धर्म है तामस, तुम्हारा धर्म है यज्ञादिक करना हमारा धर्म है यज्ञादिक न होने देना, तुम अपने धर्म के लिए मर रहे हो तैयार हो मैं भी अपने धर्म के लिए मरने को तैयार हूँ अपने धर्म में मरना उच्च गति है न तुम बोल रहे हो, राम चुप हो गए क्या जवाब देते, अरे भई तुम अपनी ड्यूटी करो हम अपनी ड्यूटी करेंगे हमारा धर्म है ये की सात्विक धर्म बढ़ने न पावे और तुम्हारा धर्म है की ये तामस धर्म बढ़ने न पावे तो अब अपना अपना धर्म है अपने अपने धर्म का पालन करना है और अगर तुम कहते हो फिर ये होगा कैसे, तुम अपना धर्म बढ़ाओगे आगे तो हमारा धर्म बिगड़ जाएगा तो ये बात हम भी तो कह सकते है की तुम सात्विक धर्म बढ़ाओगे तो हमारा धर्म पीछे हो जायेगा, इसलिए धर्म धर्म की टक्कर हो जाए यानि पुण्य पाप की टक्कर हो जाए तो पुण्य पाप तो जड़ है उनकी टक्कर कैसे होगी तो पुण्यात्मा पापात्मा की टक्कर हो जाए, तो राम धर्म के आचार्य और मारीच अधर्म का आचार्य और टक्कर हो गयी, टक्कर में जो होना था वो हुआ वो सब ठीक है
- १ गुण का मतावलंबी दूसरे गुण वाले को ख़राब कहता है
- १ तमोगुणी व्यक्ति को रजोगुणी व्यक्ति कहता है ये खराब आदमी है ये चोरी करता है डाका डालता है दूसरे को कष्ट पहुँचाता है अपने स्वार्थ के लिए ये रजोगुणी कहता है लेकिन सत्वगुणी रजोगुणी को खराब कहता है वो कहता है आप क्या करते हैं ? मैं मैं अपनी कमाई का खाता हूँ, 'न उधो के लेने न माधो के देने' तो तुमने केवल पैदा हुए मरने तक दान नहीं किया, मैं चक्कर में नहीं पड़ता, ठीक है तुम चोरी नहीं करते, डाका नहीं डालते, गलत ढंग से पैसा नहीं कमाते लेकिन तुम दान नहीं करते इसलिए तुम्हारा भी जीवन व्यर्थ है अरे कुत्ते बिल्ली गधे भी अपना पेट पाल लेते हैं तुमने भी पेट पाला था सारे जीवन तुम भी ख़राब हो, तमोगुणी व्यक्ति सत्वगुणी और रजोगुणी को ख़राब कहता है, क्या ईमानदारी के चक्कर में पड़े हो, बिना घुस के संसार में काम चलता है भला, महापुरुषों की दृष्टि में सत्वगुणी रजोगुणी तमोगुणी तीनों खराब क्योंकि तीनों का परिणाम दुःख बंधन
- वर्णाश्रम धर्म परिवर्तनशील शरीर का है
- २५ वर्ष तक हमारे गुरु जी ने हमको आदेश दिया ब्रह्मचर्य से रहो किसी स्त्री का फोटो न देखो खबरदार शिष्य को आर्डर, शिष्य ने पूरा पालन किया २५ साल के बाद गुरु जी आये बेटा १ ब्याह कर लो, ब्याह २५ साल तक तो आपने हमको ये सिखाया की किसी महिला का फोटो देखो अब केहते है ब्याह कर लो हाँ बदल गया धर्म अब तेरा, ऐसा कैसा धर्म है गुरुजी की बदल जाता है, हँ ये बदलने वाला धर्म है बेटा ब्याह कर लिया, खाली ब्याह नहीं करना, फिर ? बच्चा पैदा करना कंपलसरी है ३ ऋण है तुम्हारे ऊपर देव ऋण ऋषि ऋण पितृ ऋण, इसमें पितृ जो है वो संतान पैदा करना कंपलसरी बेटा, लो और बीमारी लगा दिया हमारे पीछे और बच्चे कच्चे भी हुए, ठीक अब २५ साल और चले उस चक्कर में गृहस्थ के अब बच्चे हुए बच्चे के बच्चे हुए २५ साल में तमाम नाटक होगा लम्बी फैमली हो जाती है अरे २५ साल में ५० हो सकते हैं जुड़वा तमाम तरह से होते है २ २, ३ ३, ४ ४ और कई ब्याह कर ले तो बहुत सारे हो जाए तो अब २५ साल में इतना लम्बा परिवार हो गया और अब उससे संभले रहो अटैचमेंट न होने पाऐ, कोई बेटा मरे हँसते रहो वाह अच्छी मुसीबत है १ तरफ तो मुसीबत मोल ले और उसके बाद उसकी कोई हानि हो तो रोओ भी मत, परेशान भी न हो ? हँ बेटा, चलो अब जो गुरूजी की आज्ञा वो तो मानना ही पड़ेगा, वेद की आज्ञा है आश्रम धर्म ५० साल बाद फिर गुरुजी आए कहो बेटा क्या हाल है ? गुरूजी ये सब देखिए रेचकारी तमाम सारी हो गयी, अच्छा देखो सुनो अब ऐसा करो फिर बदल गया धर्म ये जितने बच्चे कच्चे है न ये सबको छोड़ दो, छोड़ दो अरे ये सब बच्चे हमारे बिना कैसे रहेंगे ? अरे रहे न रहे रोये गाये मरे तुम छोड़ो ये तुम्हारे बच्चे नहीं है बेवकूफ ये तो जीवात्माऐं है अपने कर्म के अनुसार आई है रहेंगी जब तक रहना है प्रारब्ध के अनुसार, तुम इनके चक्कर में न पड़ो, बड़े लार्ड बन गए तुम की मैं इनका बाप हूँ, चलो मिया बीवी दोनों फिर चलो वानप्रस्थ आ गया और जंगल में जाकर के अब साधना करो फिर बदल गया धर्म ७५ साल में फिर आए गुरूजी कहो बेटा क्या हाल है ? हं ठीक है गुरुजी, ये कौन है ? ये मेरी बीवी है महाराज आप भूल गए क्या ? अरे बीवी वीवी कुछ नहीं होती जीवात्मा की कहीं बीवी होती है बेवकूफ, जीवात्मा की बीवी जीवात्मा, वाह अच्छा बना लिया बीवी, जीवात्मा की कोई बीवी नहीं दोनो हो जाओ अबाउट टर्न तुम संन्यासनी तुम संन्यासी, चलो अकेले अकेले, अकेले तुम आये थे फिर वंही अकेले चलना है, ब्रह्मचर्य में तुम अकेले रहे संन्यास में फिर अकेलेदेखो इतना परिवर्तन हो रहा है ४ ४ परिवर्तन १ लाइफ में, ये परिवर्तनशील धर्म है शारीरिक धर्म लेकिन चालाकी किया इसमें ऋषियों ने, क्या इस परिवर्तन शील शारीरिक धर्म में आध्यात्मिक धर्म का प्लस कर दिया, ईश्वरीय धर्म मिला दिया ये चालाकी किया वरना तो सब स्वर्ग नरक मृत्यु लोक में ही सड़ते रहते देखो ब्रह्मचर्य आश्रम में, कुछ पढ़े लिखे लोग जानते होंगे, संध्या करते हैं लोग, प्रातः संध्या मध्यान संध्या सायं संध्या ३ ३ संध्या होती है तो संध्या में अनेक बाते हैं लेकिन उसमें पेहला मंत्र जो है ये पानी हाथ में लेकर के और शरीर पर अपने छोड़ता है और १ मंत्र बोलता है अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा यः स्मरेत्पुंडरीकाक्षं स बाह्याभ्यंतरः शुचिः(गरुड़ पुराण) यानी पानी फेंक रहा है और मंत्र बोल रहा है लेकिन मंत्र का मतलब क्या है और मंत्र के मतलब के अनुसार प्रैक्टिकल कुछ सोचा क्या, मैं समझता हूँ शायद इंडिया में किसी ने सोचा हो, और जबकि लाखों क्या करोड़ो संध्या करते हैं हमारे देश में और मंत्र का मतलब क्या है ? ऐ मनुष्य कान खोल कर सुन, तू चाहे पवित्र हो चाहे अपवित्र हो तू किसी भी अवस्था में रह मैखाने में रह, पाखाने में रह, जैसे गन्दी अवस्था में रह, कहीं भी रह कोई गन्दी नाम की चीज नहीं, अगर तू श्रीकृष्ण का स्मरण कर ले देखिये मंत्र क्या कहता है यः स्मरेत्पुंडरीकाक्षं अगर तु श्रीकृष्ण का स्मरण कर ले तो स बाह्याभ्यंतरः शुचिः तो बाहर भीतर दोनों की शुद्धि हो गयी अब जरूरत नहीं तू नाहे धोए दुनिया भर का नाटक करे और तमाम प्रपंच करे कोई आवश्यकता नहीं श्रीकृष्ण का स्मरण करो बाहर भी शुद्ध भीतर भी शुद्ध डबल शुद्ध देखिये ये ईश्वर को लाकर डाल दिया ब्रह्मचर्य मे ही आध्यात्मिक धर्म को श्रीकृष्ण का स्मरण करो गृहस्थ में गए वहाँ भी श्रीकृष्ण का स्मरण करो यहाँ ड्यूटी करो अटैचमेंट न होने पाये वानप्रस्थ में दोनों को फिर सिखाया श्रीकृष्ण की उपासना करो १ दुसरे की हलकी फूलकी हेल्प लिया करो और संन्यास में एकदम एकमात्र श्रीकृष्ण की ही उपासना करो, ये आध्यात्मिक धर्म पर जाकर पर उपसंघार हुआ तो देखो परिवर्तनशील धर्म है आगंतुक धर्म इसी को अपर धर्म भी कहते हैं
- धर्म से पाप करने की प्रवृत्ति नष्ट नहीं होती
- हमारी दुनियावी गवर्मेंट में किसी भी अपराध के लिए सजा है, क्यों भई क्या हुआ ? जी मैंने चोरी की थी तो इसलिए जेल में आया हूँ, अच्छा ६ महीने के लिए है ? हाँ हाँ ६ महीने के लिए, अब वहीं बैठे बैठे वो चिंतन कर रहा है की ठीक है ६ महीने बाद जब मैं निकलूंगा तो वहाँ चोरी करूँगा वहाँ करूँगा, बड़ी बड़ी प्लानिंग कर लेता है वो ६ महीने में, उसका फायदा है फालतू बैठा है क्या करेगा और जेल से निकाल कर के रास्ते में ही चोरी करता हुआ घर पहुँचता है मृत्यु पर्यन्त नहीं छोड़ते अपना वर्क क्योंकि हृदय तो शुद्ध नहीं हो रहा, पाप का प्रायश्चित कर लिया ६ महीने जेल में रहकर, तो ये भक्ति के द्वारा ये ह्रदय की शुद्धि होती है तो इसलिए पाप का बीज भी नष्ट होता है
- जैसे आपने गोहत्या की, उसका प्रायश्चित शास्त्र में लिखा है उससे आपने प्रायश्चित कर लिया तो पाप से मुक्त हो गए, फिर पाप करेंगे आप, फिर प्रायश्चित किया, फिर पाप करेंगे आप, तो ये तो हो गया जैसे संसार में गलती करते जाते हैं और दिन भर कहा करते हैं सौरी, ये सौरी का फायदा क्या हुआ ? जब हम अपराध करेंगे तो दिन सौरी सौरी का कीर्तन किया करे तो इससे क्या लाभ होगा, पाप करने की प्रवृत्ति तो हमारी जाएगी नहीं इसलिए पाप का बीज नष्ट हो अगर तब तो काम बने, साधन भक्ति के द्वारा पाप का बीज भी नष्ट होता है
- वेद का अर्थ लोग अपनी रुचि अनुसार करते हैं
- १ पेड़ पर १ पक्षी बोल रहा था, ३ आदमी नीचे बैठे थे, उस पक्षी की आवाज को सुनकर १ ने कहा क्यों भाई यह क्या बोल रहा है ? तो १ दूकानदार था उसने कहा ये बोल रहा है "सोंठ मिर्च अदरक सोंठ मिर्च अदरक" और १ पहलवान बैठा था उसने कहा ये बोल रहा है "दंड बैठक कसरत दंड बैठक कसरत" और १ भक्त भी बैठा था उसने कहा ये बोल रहा है "राम सीता दशरथ राम सीता दशरथ" यानी अपने अपने इंटरेस्ट के अनुसार उस पक्षी की वाणी का लोग अर्थ लगा रहे हैं ऐसे ही अलौकिक वेद वाणी को पढ़ने वाले लोग अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार, अपनी अपनी ideas के अनुसार अर्थ किया, किसी ने सात्विक किसी ने राजस किसी ने तामस
- बृहस्पति देवताओं के गुरु उन्होंने चार्वाक मत का प्रचार किया, चार्वाक मत घोर नास्तिक, जब असुरों को देवताओं ने मारा बहुत मारा तो शुक्राचार्य को बड़ा गुस्सा आया, असुरों के गुरु उन्होंने जा कर तपस्चर्या किया की हम सब को जिंदा कर देंगे, तो देवताओं ने कहा अरे गड़बड़ हो जाएगी, गए बृहस्पति के पास अरे वो तो राक्षसों को जिंदा करने गए हैं फिर हमको मार डालेंगे वो राक्षस लोग कुछ तो करो गुरु जी, बृहस्पति भगवान के पास गए उन्होंने कहा महाराज बड़ी मुसीबत में फंस गए हैं अब सब ने मीटिंग किया क्या किया जाए, तो पहला काम तो इंद्र को करना है इनसे कहो अपनी लड़की को भेजे शुक्राचार्य के पास उनकी तपस्या भ्रष्ट करे और इधर बृहस्पति शुक्राचार्य का रूप धारण करके और जाएं राक्षसों के पास और उनको चार्वाक मत सिखावे, तो शुक्राचार्य का रूप धारण किया बृहस्पति ने इन लोगों के पास अलौकिक शक्ति होती है कोई मेकअप नहीं करतें, शरीर उसी प्रकार का बना लिया गए, सारे राक्षसों ने कहा, गुरु जी गुरु जी आ गए गुरु जी आ गए तपस्या करके, अब हमारे सब भाई बंधु जो मर गए हैं जिंदा हो जायेंगे और वो वैसी एक्टिंग करने लगे बृहस्पति और कहा देखो बच्चों तुम लोगों को सिद्धांत का ज्ञान कराने आये हैं ऐसा है कि १ सिद्धांत याद कर लो, जब तक जिए सुख से जिए कर्जा करके भी पिए मरने के बाद कुछ नहीं होता कोई न भगवान है न परलोक है न कुछ है बड़े विभोर हो कर तत्वज्ञान कर रहे थे, कर लिया चार्वाक वादी हो गए और उनको बना करके और शुक्राचार्य असली आये वहाँ तपस्या भंग हो गई, बृहस्पति ने कहा नकली शुक्राचार्य आएगा तो तुम लोग सावधान रहना, हाँ गुरु जी हम सावधान रहेंगे, जब आय शुक्राचार्य तो उन लोगों ने कहा गेट आउट, तो शुक्राचार्य ने कहा गुरु को ऐसा कह रहे हो तुम लोग, सब लोगो का दिमाग खराब है, बृहस्पति तो भाग गए अपना उनको चार्वाक मत का ज्ञान करा दिया, ऐसे ऐसे हमारे देश में हुए हैं बड़ी बड़ी पर्सनैलिटी, तो वेदवाणी के अनेक अर्थ इसलिए हो गए सबके संस्कार अलग अलग अनेक जन्मों के होते हैं
- वेद मंत्र की उच्चारण त्रुटि से फल उल्टा
- १ राक्षस ने कराया यज्ञ और उसमें ऋषियों ने चालाकी ये की कि ये राक्षस वेद मंत्र का स्वर तो जानता नहीं खाली अक्षर जानता है इन्द्र शत्रु र्विवर्धस्व इसमें परिवर्तन करोगे तो पकड़ लेगा ये मार डालेगा सारे ऋषियों को, की तुम मनमाना मंत्र बोल रहे हो लेकिन स्वर बदल दो तो ये नहीं जानेगा और वेद मंत्र के स्वर के अनुसार ही फल देता है तो उन्होंने आदुदात्य और अंतोदात्य का अंतर कर दिया ईंन्द्र ईन्द्र इन्द्र अब मैं ३ प्रकार से बोल रहा हूँ और सुन रहे हैं आप लोग १ प्रकार से ये स्वर का कमाल है तो जो आदुदात्य को अंतोदात्य कर दिया तो उसका अर्थ, मंत्र का अर्थ तो ये था कि इंद्र का शत्रु बढ़े यानि राक्षस बढ़े इन्द्र का शत्रु बढ़े ये शब्दार्थ है इन्द्र शत्रु र्विवर्धस्व लेकिन जो स्वर बदल दिया शब्द वही है तो स्वर बदल देने से ये अर्थ हो गया की इंद्र बढ़े ये मतलब हो गया उसका, यज्ञ हुआ पूरा हुआ भगवान प्रकट हुए और सुनो और भगवान ने कहा जैसा तुमने मांगा है वैसा ही मिलेगा, वरदान भी हो गया राक्षस विभोर अब तो इन्द्र को हम अपनी मुट्ठी में बांधेंगे जेल में बंद करेंगे मक्कार को स्वर्ग सम्राट बना हुआ है और हम स्वर्ग सम्राट बनेंगे, युद्ध हुआ युद्ध में इंद्र ने मारा उस राक्षस को और बांधा जब बांधने लगा पकड़ कर के तो उसने कहा ओ भगवान त्रिलोकीनाथ तूने वरदान दिया था तू भी झूठा है अपने १ बेटे का पक्षपात कर रहा है मैं चैलेंज करके मर रहा हूँ संसार को कि भगवान के यहाँ भी अन्याय होता है देवता भी तेरे बेटे और राक्षस भी तेरे बेटे १ बेटे के पक्षपात के लिए वचन देकर के मुकर रहा है फिर भगवान को आना पड़ा क्या कहता है रे नालायक बेटे, तेरे वेद मंत्र में यही तो था इन्द्र बढ़े, ये कैसे था वेद मंत्र था इन्द्र शत्रु र्विवर्धस्व अरे मूर्ख उसमें जो स्वर लगाया था ऋषि मुनियों ने उससे मतलब बदल गया, हं ये तो ऋषि मुनियों की गलती थी, ऋषि मुनि तेरे ही तो पुरोहित है ऐसे गलत पुरोहित क्यों लाया यजमान, इसका दंड यजमान को भोगना पड़ेगा, इतना कठिन है कर्मकांड
- कर्म करने में स्वतंत्र, फल भोगने में परतंत्र हैं
- आप बीमार हैं, जी हाँ, आपको पेचिस हो रही है, जी हाँ, और अच्छा क्या लगता है हलुआ, जी हाँ, खाए जाओ, हँ खा रहे हैं, अच्छा लगा ? हाँ बड़ा अच्छा, आगे क्या हुआ ? अरे हालत खराब हो गयी, तो दुःख भी भोगते वो जो हलुआ खाते समय अच्छा लगा था वो जबान को २ ४ मिनट उसके आगे २ ४ महीना भोगते भी जाओ, हाँ वही बुरी बात है वो तो भोगना पड़ेगा, कर्म करने में स्वतंत्र है किन्तु फल भोगने में परतंत्र है वो तो भोगना ही पड़ेगा इसलिए ये मत सोचिये की अधर्म में बड़ा आराम है मन में आये सो करो, मन में आये सो करो ये तो ठीक है लेकिन मन में आये सो भोगो ऐसा नहीं है फल तो कर्म के अनुसार ही मिलेगा चाहे फिजिकल वर्क हो चाहे स्पिरिचुअल वर्क हो
- कर्म सम्बंधी विषय भोग के समय समाप्त हो जाते हैं
- जैसे आप लोग ब्रह्मभोज में बैठते हैं दावत में बैठते हैं रोटी लाओ दाल लाओ चावल लाओ पूड़ी लाओ कचौड़ी लाओ खीर लाओ सब सामान आ गया देख लिया आपने, आ गया आ गया अब ये लाओ लाओ लाओ लाओ आ गया आ गया आ गया खाओ खाओ खाओ खाने जा रहे खाने जा रहे है जो मुँह में डाला चुप, अब बोलना बंद सब खाने लगे ५०० आदमी १००० आदमी कोई बोल नहीं रहा है जी अभी सब बोल रहे थे, अरे इसलिए बोल रहे थे खाने आया नहीं था अरे हमको लाइए साहब ये, हमको साहब जरा वो रख जाइए, हमारे लिए साहब रसगुल्ला रख जाइए हमारे लिए सब हल्ला गुल्ला मचा रहे थे अब खाना शुरू हो गया अब कोई नहीं बोलेगा अब तो जब खा चुकेंगे तब फिर बोलना शुरू होगा और वो भी बड़े आराम से बोलेंगे कुछ व्याकुलता से नहीं बोलेंगे हं भई खाना बड़ा अच्छा बना वाह, इठला कर के, तो जितने भी हमारे कर्म सम्बंधी विषय हैं ये भोग के समय समाप्त हो जाया करते हैं
- प्रारब्ध जन्य पाप
- अगर कोई चांडाल के घर में भी जन्म ले यानि प्रारब्ध इतना खराब हो जो कुत्ते का मांस खाता है ऐसा जो पापात्मा परिवार है अगर उसके घर में कोई जन्म लेता है तो लोग तो यही कहेंगे अरे चांडाल का लड़का है, अरे भाई तो मेरा क्या दोष है ? चांडाल का लड़का मैं हूँ या हरिजन का लड़का हूँ या ब्राह्मण का हूँ इसमें मेरा क्या कुसूर है, हाँ तुम्हारे पूर्व जन्म के बहुत पाप थे इसलिए तुम ऐसे घर में पैदा हुए हो, तो भक्ति के द्वारा वो चांडाल भी उन वैदिक कर्मों का अधिकारी हो जाता है जो ब्राह्मण कुल में जन्म लेने वाले चतुर्वेदी ब्राह्मणों को अधिकार रहता है, ये भक्ति का चमत्कार उसी जन्म में
- प्रारब्ध सबको भोगना पड़ता है
- जिसके सगे मामा श्रीकृष्ण, अर्जुन अभिमन्यु का बाप है सगा और उस की बीवी उतरा उसकी शादी कराया वेदव्यास में वो भी भगवान के अवतार और निरपराध कौरवों ने मार दिया न श्री कृष्ण ने बचाया न अर्जुन ने बचाया न वेदव्यास ने बचाया सब बैठे हैं शोक मना रहे हैं और हम लोग पंडित जी को ५० रुपया देके मृत्यंजय का जप करा करके बेटे की मृत्यु को टलवा देंगे, इतने भोले प्रारब्ध सबको भोगना पड़ेगा इसलिए भगवान के संविधान में लाल श्याही चलाने की बुद्धि नहीं लाना है
- हम लोग तमाम देवी-देवता भगवान् सबको मानने का स्वाँग रचते हैं, स्वाँग, एक्टिंग, दम्भ, पाखण्ड, बनावट, धोखा, चार सौ बीस, हे भगवान् ! हमारा बेटा अच्छा हो जाय, हे दुर्गा जी ! हे हनुमान जी ! ये हम जो जोकरी करते रहते हैं पूरी लाइफ, ये अपनी आत्मशक्ति को बरबाद कर रहे हैं। हम ५ किलो लड्डू चढ़ायेंगे हनुमान जी हमारा यह काम कर देना। हनुमान जी कोई तुम्हारे पड़ोसी के समान हैं कि ५ किलो लड्डू में काम करेंगे ? अरे ! कौन हैं हनुमान जी ? हनुमान जी तो महापुरुष हैं। उनको कुछ चाहिये क्या ? अरे नहीं, वो तो पूर्णकाम, आत्माराम, परमनिष्काम है। फिर तुम ५ किलो लड्डू देकर, घूस दे करके और प्रारब्ध के खिलाफ काम कराना चाहते हो। यानी भगवान् ने जो प्रारब्ध तुम्हारे लिख दिया है कि बेटा मरेगा १० तारीख को, और तुम ५ किलो लड्डू देकर उसके बचाने के चक्कर में हो। और हनुमान जी से। कितनी ज़हालत है, यानी हाफमैड नहीं कहना चाहिये ऐसे लोगों को फुलमैड से भी आगे। इतने भोले हैं लोग कि भला बताओ हनुमान सरीखे महापुरुष अपने इष्टदेव राम के खिलाफ काम करेंगे ? कि राम ने प्रारब्ध बना दिया आपके लिये कि आपने यह दुष्कर्म किया है उसका यह फल भोगना पड़ेगा और आप ५ किलो लड्डू में वो भी, हनुमान जी से कोई दोस्ती किया ? यही दोस्ती है जब कभी निकलते हैं मन्दिर के सामने से। नमस्ते, ऐसे कर लेते हैं। हाँ। लोग कहते हैं, भाई ! प्राइम मिनिस्टर से हमारी भी जान पहचान है। कैसे है ? वो जहाज से जा रहे थे तो मैंने टाटा किया था। ऐसी दोस्ती है तुम्हारी हनुमान जी से, दुर्गा जी से, ये पता नहीं क्या समझ रखा है हम लोगों ने इन सुप्रीम पावर को, महापुरुषों को, भगवान् को। अरे ऐसे धोखे में तो दुनिया वाले भी नहीं आते। किसी को फाँसी की सज़ा होनी है, कल्पना करो। कोर्ट में मुकदमा है सब गवाही पक्की, डाक्यूमेन्ट्स सब पक्के हो गये हैं, फाँसी होगी। अब आप जज के पास जायें हाईकोर्ट में और कहें ५ किलो लड्डू ले लो इसको छोड़ दो। ऐसा आप करेंगे ? अरे साहब ! भला हाईकोर्ट जज ५ किलो लड्डू। अरे वो पाँच हजार में नहीं मानेगा। तो फिर आप भगवान् के विषय में ऐसा क्यों करते हैं ? सोचिये। तो ये हमारी जो कामना की बीमारी है, ये तो प्रेम शब्द यहाँ लगाना ही नहीं। ये तो कन्फ्यूजन है, भ्रम है, ये सकाम वकाम प्रेम प्रेम कुछ नहीं है। ये केवल संसार की कामना है। थोड़ा सा कन्फ्यूज़न यह है कि भगवान् सुन लेते हैं इसलिये हम लोग इस प्रकार की बातें किया करते हैं और अगर बाइचान्स हमारा काम बन गया, बड़ा दयालु है भगवान्, हनुमान जी और दुर्गा जी और....., और अगर वो मर ही गया लड़का- अजी ! कुछ नहीं सब ढकोसला है सबका, सब बेकार है, ढोंग है सब। यानी अपनी कामना पूर्ति न होने पर भगवान् भी नथिंग हो गया उनके लिये। इतने बड़े नास्तिक हैं वो, और कह रहे थे कि हम सकाम प्रेम करते हैं। अगर सकाम प्रेम करने वाला कोई हो, तो प्रेम तो ऐसी चीज़ नहीं है कि वो फिर समाप्त हो
- दान करें और मैंने दान किया ये भावना न आने पावे
- हम लोग जरा सा दान किसी संस्था में मटेरियल जगत में करते हैं तो चाहते हैं मेरा नाम अखबार में निकले, मेरा नाम यहाँ दीवाल पर लगा दिया जाए, इतना भूल जाते हैं की दान तो गुप्त जो होता है उसको दान कहते हैं और कोई जाने न क्योंकि कोई जानेगा और प्रशंसा कर देगा तो अहंकार हो जाएगा, सब चौपट हो गया
- १ थे राजा रघु, भगवान राम के बाप दशरत, उनके बाप अज, उनके बाप दिलीप, उनके बाप रघु बड़े दानी थे सब कुछ दान करके अब मिट्टी के बर्तन में पानी पी रहे थे राजा संपूर्ण पृथ्वी के थे सतयुग की बात बता रहा हूँ १ पेड़ के नीचे बैठे पानी पी रहे थे २ ३ यात्री जा रहे थे उधर से १ ने पहचान लिया उनको अरे रुक रुक राजा रघु हैं हम लोगों के राजा ये मिट्टी के बर्तन में पानी पी रहे हैं दूसरा कहता है अरे ऐसे होते हैं राजा तू नहीं जानता मैं पहचानता हूँ रघु ने सुन लिया और बुलाया, वो डरता हुआ गया की क्या अपराध हो गया हमसे, रघु ने कहा तूने क्या कहा कुछ नहीं सरकार मैंने ये कहा कि रघु हैं देखो सब कुछ दान कर दिया मिट्टी के बर्तन में पानी पी रहे, क्यूँ रे मैं नंगा आया था तो मैंने दान क्या कर दिया ये सृष्टि का सामान तो भगवान का है दुनिया भगवान ने बनाया है अरे मैं उनके संसार का भोग कर रहा हूँ खाना खा रहा हूँ कपड़ा पहन रहा हूँ उनकी पृथ्वी पर चल रहा हूँ अगर थोड़ा सा उसमें से दान कर दे कोई तो यह अपना क्या दान किया उसने भगवान के समान में से भी थोडा सा दान दिया तारीफ करता है खबरदार आज से कभी ऐसा नहीं कहना ये भावना राजा की रही ऐसी ही भावना बनानी चाहिए दान
- संसार में बड़े बड़े लोग कार में चलते है न, और कोई भिखारी आया, किसी का हाथ गायब है किसी का पैर गायब है और पहले तो कह दिया आगे जाओ और अगर कुछ दया आ गई की वाकई इसका तो बहुत हालत खराब है तो हाथ डाला कौन सा सिक्का सबसे छोटा है इसमें ? पाँच पैसा, ऐऽऽ ले, यों फेंकता है अहंकार देखो, अरे वो पाँच पैसा भी जरा प्यार से दे दो बिचारे को, उसको खुशी हो जाए, नहीं जी हम बड़े आदमी हैं, हम ऐसे नहीं देते, ए ले, और वो भी देख लिया चारों तरफ लोग देख रहे हैं न की मैंने दिया है, ये हाल है हम लोगों का, इतना हम लोग गिरे हुए हैं और अपने बेटे का मामला है, तो दुकान पर बेटे ने अगर कहा की ये समान लूँगा, अरे बेटा ये तो बड़ा महँगा है मैं तो यही लूँगा, अच्छा चलो
- तुम्हारे पास है क्या जो सेवा करोगे
- सुकरात १ फिलोसफर हुआ है उसका शिष्य था डोजिनीस, उसके पास सिकंदर बादशाह गया और उसने पूछा महाराज कुछ हमारे लिए सेवा बताइए, तो डायोजनीज ने कहा हट, धूप छोड़ दे, सेवा करेगा ये, है क्या तेरे पास फटीचर दरिद्री, तू क्या सेवा करेगा ? मेरी सेवा करेगा ? मेरी सेवा करना है दे स्पिरिचुअल हैप्पीनेस, है तेरे पास ? नहीं वो तो नहीं है, तो फिर क्या सेवा करेगा तू ? रसगुल्ला खिलाएगा मुझे ? इसके लिए मैं बाबाजी बना हूँ, अरे भाई कोई गरीब पैसा मांगे मांगने तो उसको पैसा चाहिए, कोई बुद्धि मांगने जाए उसको ज्ञान चाहिए, हमको चाहिए स्पिरिचुअल हैप्पीनेस, और तू दान करने का स्वांग रचकर के मेरे पास आया है क्या देगा, तू तो खुद भिखारी है, ये जो छोटी मोटी संपत्ति है हीरा मोती मिट्टी के टुकड़े तू इंडिया वगैरह से लेके आया है ये मुझे देने आया है ?
- १ महात्मा के पास एक राजा गया और अपने हाथी से उतर करके सभ्यता के अनुसार प्रणाम किया और कहा महाराज ! कोई सेवा ? ठीक है जिसके पास संसारी वस्तु है और महात्मा के पास जाता है, तो प्राचीन नियम के अनुसार ऐसा बोलता है। तो महात्मा जी हँसे। उन्होंने कहा- अरे भाई देखो, ऐसा है और तो सब ठीक है यहाँ मक्खियाँ बहुत तंग करती हैं- मक्खी। जरा इनका कुछ प्रबंध कर दो। महाराज ! मक्खी तो मेरे बस में नही हैं। ऐंऽ ! तेरे बस में मक्खी भी नहीं हैं और सेवा करने चला है। जा भाग जा यहाँ से, छोड़ धूप। धूप लेकर खड़ा हो गया, हट। राजा दंग रह गया। सुना करते थे कि त्यागी लोग कुछ हुआ करते हैं आज आँखों से देखा। जहाँ सब सलाम करते हैं। सरकार, गरीब परवर, माई बाप आप हैं, यही शब्द सुनने को मिलते थे राजा को, वहाँ आज एक फकीर चैलेन्ज कर रहा है तेरे बस में मक्खी तक नहीं हैं और तू कहता है कि मैं राजा हूँ, कहिए क्या सेवा करें ? क्या सेवा करेगा तू। अगर कुछ सेवा कोई करता भी है तो अगर सेवा की परिभाषा बता दी जाय, सेवा कहते किसको हैं तो सिर नीचा हो जायगा हरेक का। और सोचना पड़ेगा कि वाकई मैंने कभी सेवा नहीं की। क्योंकि सेवा करते समय यह भावना आयी थी मैं यह दे रहा हूँ। 'मैं ये दे रहा हूँ', ये भावना नहीं आनी चाहिए और अगर उसको किसी से आउट कर दिया, तब तो बंटाढार पूरा का पूरा हो गया। मैं जो दे रहा हूँ उसको महापुरुष या भगवान् ने स्वीकार कर लिया इस खुशी में आँसू आना चाहिए। मैं कर रहा हूँ। तुम क्या करोगे ? तुमको पता भी है कुछ। सेवा कहते किसको है ?
- वेद में १ कथा है १ बार दुर्वासा गल्लियों में नारा लगा रहे मुझे कोई गुरु बना लो, दुर्वासा के नारा लगाने पर एक भी तैयार नहीं हुआ शिष्य बनने को। तो दुर्वासा गये द्वारिका। द्वारिका में सब महापुरुष ही महापुरुष हैं और भगवान् तो हैं ही हैं। उनकी सारी बीबियाँ सब महापुरुष ही हैं और वहाँ माया का सवाल ही पैदा नहीं होता, लेकिन वहाँ भी "जब अगर किसी ने सेवा में गड़बड़ की तो दण्ड मिलेगा।" ये वाक्य सुना, लोगों ने कहा भई ठीक है ठीक है, आप आगे जाइये और कोई चेला ढूंढ़िये। श्रीकृष्ण ने सुना, एक दूत ने आकर बताया कि सरकार एक ऐसा ऐसा फकीर आया है वो ऐसे चिल्ला रहा है। और कहता है हमारा नाम दुर्वासा है। तो उन्होंने कहा, अरे बुला लाओ, बुला लाओ। हम शिष्य बनेंगे उनके। एक शिष्य बनने को तैयार हुए। वह जगद्गुरु श्रीकृष्ण आज शिष्य बनने जा रहे हैं दुर्वासा के। और कौन हिम्मत करे ? ले आये महल में ठहरा दिया और पच्चीस-पचास लड़कियाँ सेवा में रख दिया दुर्वासा के। बड़ी एक्सपर्ट लड़कियाँ जो थीं सेवा में स्पेशल क्लास की। तो दुर्वासा ने कहा कि भई मैं तो खीर खाऊँगा। तो रुक्मिणी ने कहा ये कैसे बाबा जी हैं! अरे बाबा जी कोई आता है तो उसको जो मिल जाय खा लेना चाहिए। मैं खीर खाऊँगा, हलुवा खाऊँगा। पहले ही पहले। कोई बेतकल्लुफी हो जाय घर में, किसी गृहस्थी के घर तो बाबा जी लोग कुछ कह भी देते हैं और वह इस बहाने से कहते हैं कि आज तो हमारे गोपाल जी तस्मई खायेंगे। वह जो पत्थर के गोपाल जी लिये रहते हैं न उन्हीं को बहाना ले लेकर के बाबा लोग खूब मालटाल खाते हैं। आप लोगों में से शायद किसी को अनुभव हो और वैसे भी बेतकल्लुफी हो जाने पर संसार में लोग कह देते हैं, लेकिन पहली ही बार में ऐसी बात करें, ए श्रीकृष्ण ! मैं खीर खाऊँगा। हाँ महाराज जी ! जैसी आज्ञा । रुक्मिणी खीर लाओ। महालक्ष्मी की अवतार वहाँ क्या कमी है, वहाँ कौन सा प्रश्न है आज चीनी नहीं है, आज दूध नहीं है, जरा दस मिनट रुक जाओ, ये सब सवाल नहीं है। ए खीर! ये खीर आ गई। सब सिद्धियाँ वहाँ नौकरानी हैं रुक्मिणी की। एक आध गस्सा खाया वाया और श्रीकृष्ण से कहा- ए! इस खीर को पोत ले अपने शरीर में। रुक्मिणी देख रही हैं कि क्या बाबा हैं, और इनका दिमाग खराब है कि चुपचाप सुने जा रहे हैं सब। सारे शरीर में श्रीकृष्ण ने अपने पोत लिया खीर। उसके बाद कहा-ए रुक्मिणी ! इधर आ। रुक्मिणी ने कहा मेरी भी शामत आई है, बाबा हमको भी बुला रहा है। हाँ। अरे भई ये तो पुरुष हैं ठीक हैं, इनको कुछ भी बुलावें, हमको क्यों बुला रहे हैं बाबा जी। बैठ, बैठाया और खीर अपने हाथ से ले के उसके सारे शरीर में पोता, रुक्मिणी के। अब बेचारी संकोच कर रही है, स्त्री शरीर है। ठीक है, श्रीकृष्ण चुप हैं तो बेचारी वह क्या बोले ? उसके बाद गये अपने जिस महल में ठहरे थे उसमें आग लगा दिया। वो जलने लगा। सब नौकरानियाँ भागीं। अरे वो पागल बाबा आया है उसने आग लगा दिया, लेकिन अब श्रीकृष्ण से कौन बोले। ठीक है भई वह कहते हैं हम गुरु बनायेंगे तो कौन बोले नौकर चाकर की हिम्मत क्या। अरे कृष्ण ! जरा मैं घूमने चलूँगा रथ तैयार करो। देखो रथ में घोड़े नहीं रहेंगे, एक तरफ तुम, एक तरफ रुक्मिणी। रुक्मिणी ने कहा और लो, जो कसर है बाकी पूरी हो गई। अब घोड़ा बनना पड़ेगा हमको। और बैठ गये ठाठ से रथ के ऊपर, कोड़ा लेकर हाथ में चाबुक और रथ लेकर चले दोनों, लेकिन रुक्मिणी तो कमजोर पड़ती थी बेचारी, अरे सोचो महालक्ष्मी की अवतार, इतनी कोमलांगी जो कमलासना कहलाती हैं कमल के ऊपर उनके चरण का निचला भाग रहता है हमेशा कमल की पंखुड़ियों के ऊपर। अब वह रथ लेकर चले नंगे पाँव, चप्पल नहीं पहन सकते गुरु को ले जाना है चप्पल-वप्पल नहीं चलेगी। तो कुछ दूर चली उसके बाद कन्धा उनका यों यों होने लगा नीचे। जब एक तरफ का बैल गड़बड़ करे तो दूसरी तरफ का बैल क्या करेगा अकेला ? तो चाबुक मारा रुक्मिणी को। और श्रीकृष्ण अपना चुपचाप बड़े विभोर हो रहे हैं। श्रीकृष्ण ने कहा- महाराज ! ये शिष्य नहीं बन सकती, मैं अकेला रथ ले चलूँगा आपका। बताइये कितनी स्पीड में ले चलूँ और कहाँ ले चलूँ ? किस लोक में ? तो देखा दुर्वासा ने और कहा कि हाँ ठीक है, ठीक है, ठीक है। तू पास हो गया। कहीं जाना वाना हमको नहीं था। ये सब विपरीत व्यवहार की मेरी एक्टिंग थी। जा तू पास हो गया। लेकिन तूने एक गलती किया है। हाँ महाराज ! हमसे भी गलती हो गई? हाँ हो गई। क्या गलती किया महाराज ! हमने कहा था सारे शरीर में खीर पोत लेना तुमने तलवे में नहीं पोता, उसी तलवे में तेरे बाण लगेगा, अन्तिम समय में। तूने मेरी आज्ञा पूरी-पूरी नहीं मानी। सारे शरीर में प्रत्येक अंग में खीर पोता, तलवे में नहीं पोता। तो ये विपरीत व्यवहार करते हैं महापुरुष लोग। प्राचीन काल में तो नाइन्टी नाइन परसेन्ट यही हुआ करता था लेकिन अब इस युग में तुलसी, सूर, मीरा, कबीर, नानक तुकाराम तमाम सन्त हुए उन्होंने समय-समय पर किया, ज्यादा नहीं किया क्योंकि जीव कल्याण करने के लिए सोचना पड़ता है कि भई इनकी योग्यता ऐसी नहीं है सहन करने की। कभी-कभी मूड में आ जाने पर कर देते हैं। थोड़ा समझने के लिए कि भई कुछ थिअरी समझता भी है कि नहीं ये। या खाली सिर हिलाता है लेक्चर में बैठकर के। हाँ महाराज जी बड़ा अच्छा बोले आज आप। अरे अच्छा बोले कि बुरा बोले ये मतलब नहीं है तुमने हृदय में उसको गाँठ लगाकर, बाँध करके, समझ करके पक्का किया ? और अगर पक्का किया तो हमेशा वह साथ रहना
- गलत पात्र में दान न करो दंड मिलेगा
- अगर तुम आज उसको पैसा न दिए होते तो उस पैसे से वो रिवाल्वर न खरीदता तो उस रिवाल्वर से वो खून न करता तुम उसके जिम्मेदार हो, तू मुझे तो मालूम नहीं हमने तो रिवाल्वर के लिए पैसा दिया नहीं मैंने तो उसको दिया था इसके कपड़ा नहीं है खाना नहीं है गरीबी के कारण, गरीबी के कारण दिया लेकिन तुमने उसके नेचर को उसके स्वभाव को उसकी बुद्धि को क्यों नई रीड किया ? ये तो बड़ा मुश्किल है, तो मुश्किल है तो मत दान करो, गलत दान करोगे दंड मिलेगा उसमें कोई रियायत नई
- ह्रदय से कोई भी वस्तु होती है उसका मूल्य होता है लिमिट से नहीं
- थोड़े पैसे का दान भी बहुत महत्व रखता है, २ यक्ष यक्षणी दोनो खुले आम प्यार कर रहे थे और दुर्वसा मुनि जा रहे थे उन्होंने कहा सभ्यता नहीं है श्राप दे दिया तो दोनों गिरगिट बन गए, १ महात्मा कई दिन के भूखे थे, सत्तू भीख माँग करके लाया और उसको घोल के पी रहे थे सब परिवार भर तो भक्त वो जल्दी जल्दी पी रहा था तो कुछ उसके बूँद नीचे गिर गई, नीचे बिल पे गिरगिट बैठा था उसी के शरीर के ऊपर गिरा तो सोने का बन गया उतना हिस्सा, गिरगिट की बीवी ने कहा की सारा शरीर सोने का हो जाता तो कितना सुन्दर लगते, ऐसा है की राजसूय यज्ञ कर रहे भगवान है उसके नेता चले हम लोग भी वहाँ तो सारा शरीर सोने का हो जायेगा, गए खूब लौटे कुछ नहीं हुआ वैसे का वैसे रहा, तो जब सभा लगी थी सभा में जा के खड़ा हो गए और कहा युधिष्ठर के यज्ञ को धिक्कार है, भीम ने कहा कौन है बतमीज़ किसकी हिम्मत है, श्रीकृष्ण ने कहा पहले उससे पूछ तो ले ऐसा क्यों कह रहा है जो पूछा तो उसने बता दिया की उसके १ बूँदे मेरे ऊपर गिरा देखो सोने का है बना हुआ और तुम्हारे यज्ञ में इतना लोटा कुछ नहीं हुआ, अर्जुन ने तमाम राजाओं को परास्त करके उनका ख़ज़ाना उठा के लाया था उससे यज्ञ कराया गया और ये संत भूखा था भिक्षा माँग कर सत्तू लाया था उसका मुक़ाबला यज्ञ से नहीं हो सकता
- कलयुग में सब मंद बुद्धि हैं
- ये कलयुग है इसमें लोगों की जो खोपड़ी है वो बड़ी कमजोर है १ बात को १० बार समझाओ फिर भूल गया फिर भूल गया, अभी अभी उसको कहा ऐसा करना है पंद्रह मिनट बाद तुमने किया ? महाराज जी भूल गए, क्या स्थिति है क्या खोपड़ी है तुम्हारी २५ वर्ष की आयु में प्राचीन काल में सतयुग में समस्त शास्त्रों वेदों पुराणों का परिपूर्ण ज्ञान प्लस उसका प्रैक्टिकल स्वरूप पूरा तैयारी पूरी हो जाए तब शादी होती थी गृहस्थ में प्रवेश होता था और आज बुढ़ापा बीत जाता है विद्वानों का १०० १०० वर्ष की उम्र हो गई अभी ग्रैमर में भी विद्वान नहीं बने, वेदांत न्याय सांख्य मीमांसा तो पड़ा हुआ है, हँ मुझे बड़ा अनुभव है तमाम काबिलों से मैं मिलता हूँ मिल चूका हूँ जिनकी बड़ी बड़ी प्रतिष्ठा है संसार में मुझे हँसी आती है उन लोगों को देख कर तो इतनी कमजोर, मेमोरी कमजोर हमारी बुद्धि ग्रहण शक्ति कैचिंग पॉवर इस युग में हो गयी है तो फिर सारे शास्त्रों वेदों का ज्ञान प्राप्त करना फिर अगर हम कर भी लें तो संसार सब उसी प्रकार का हो तब तो हिसाब बैठे, हमारे अकेले के ज्ञान से क्या काम चलेगा
- ज्ञान मार्ग कठिन है
- हमको गंगा जी पार करना है तो १ ने कहा कैसे पार करोगे ? उन्होंने कहा साहब देखिए १ उपाय तो ये है की आप चले हमारे साथ तैर के पार कर ले हम दोनों और १ उपाय है की आप १० रुपया दीजिए नाव पर बैठ कर चले जाइये
- ज्ञानी का पतन
- ज्ञानी बंदरिया का बच्चा है, वो बंदर का बच्चा अपनी माँ को स्वयं पकड़ा रहता है तो जहाँ जम किया बंदरिया ने अधिक दूर तो गिर जाता है बच्चा कभी कभी मर जाता है यानी ज्ञानी हो कर्मी हो योगी हो अपने बल पर चलता है इसलिए पतन होता है और भक्त बिल्ली का बच्चा है बिल्ली स्वयं अपने बच्चे को पकड़े रहती है
- जड़भरत जीतेन्द्रिय १ हिरनी को पाल लिया उन्होंने हिरनी के बच्चे को, १ शेर के दहाड़ से डर कर हिरनी नदी में कूद गई उसके पेट में बच्चा था नदी में गिर गया, वहीं नहा रहे थे जड़भरत उनको दया आ गई, महापुरुषों में दया को प्रमुख गुण है उन्होंने कहा मर जाएगा उन्होंने पानी में कूद कर के उसको उठा लिया, अब उसको पालना बड़ा कठिन काम तुरंत का पैदा हुआ बच्चा चाहे हिरनी का हो चाहे मनुष्य का हो चाहे किसी का हो उसको पालना बड़ा कठिन है बडा बच्चा हो तो कोई बात नहीं लेकिन दिन रात लगे रहे उसको खिलाना पिलाना सुलाना नहलाना और अपने पास ही सुलाना भी और दुलराना, जब ये नाटक जो बच्चों के साथ होता है और छोटे बच्चे तो चाहे गधी के हो अच्छे लगते हैं अचानक मृत्यु आ गई अब वो चुकी आत्मज्ञानी थे इसलिए उनको पता चल गया अब हमारा अंतिम समय है शिष्यों को बुलाया और कहा देखो ये हिरन है ये हमारा बड़ा सबसे प्रिय है इसको खूब संभाल के रखना सब लोग खिलाना पिलाना कोई कष्ट न होने पाये और मर गए, मरने के बाद हिरण बनना पड़ा, पशु योनी सबसे निकृष्ट योनी जो है इसलिए मृत्यु को सदा ध्यान में रखना चाहिए
- भक्ति रहित ज्ञान मूर्खता है
- जैसे कोई धान को कूट कर चावल निकाल ले और उसके ऊपर की छिलका फेक दे बाहर, अब इसमें चावल नहीं है उधर से ज्ञानी आया उसने कहा ये किस बेवकूफ ने इस छिलके को फेंका है ? अरे इसी से तो चावल निकला है मैं फिर निकालूँगा चावल, वो बटोरकर ले आया और कूटने लगा, वो छिलके का आटा बन गया लेकिन चावल नहीं निकला, ऐसे ही ज्ञानी अगर श्रीकृष्ण भक्ति बिना अपने बल से चाहता है माया को समाप्त कर दें, वो घोर मूर्ख है
- निर्गुण ब्रह्म की भक्ति से मुक्ति नहीं हो सकती
- संसार में अगर कोई जिंदा हो और कोमा में हो, बेहोश हो और डॉक्टर लोग कहें की अब ये कभी होश में नहीं आएगा, जिंदा रहेगा, तो फिर उसके घर वाले रिश्तेदार कहेंगे बेकार है ये आदमी, ये किसी काम का नहीं, उससे कौन प्यार करेगा ? कौन ममता करेगा और क्यों करेगा ? क्योंकि उससे कोई स्वार्थ सिद्धि नहीं हो सकती, ऐसे ही निर्गुण ब्रह्म कुछ सुनता, करता ही नहीं तो कृपा कहाँ से करेगा
- आत्मानंद से सावधान रेहना
- ज्यों ज्यों मन धुलेगा त्यों त्यों स्वच्छता बढ़ती जाएगी लेकिन बीच में अपनी बुद्धि नहीं लगा देना, हमेशा गुरु के शरणागत रेहना, नहीं तो ऐसी फीलिंग बीच में आपको होगी अब तो लगता है बिलकुल शुद्ध हो गए, ये बड़ा भ्रम होता है क्योंकि किसी गरीब को मामूली दुकान का भी रसगुल्ला मिल जाए तो सोचता है इसके आगे कुछ नहीं होगा, तो अनादिकाल का रंक है ये अंतःकरण इसको अगर संसार के सुखों से बड़ी चीज थोड़ी भी मिल गई, ये आत्मज्ञानी क्यों नष्ट होता है क्योंकि वहाँ सात्विक सुख मिलता है उसको, अविद्या माया(रजोगुण तमोगुण) नष्ट हो जाती है उसकी तो सत्व गुण का सुख मिलता है तो वो सुख बहुत बड़ा होता है समाधि का सुख कहते हैं उसको लेकिन वो भी सुख नहीं, सुख का आभास है लेकिन इतना बड़ा सुख ज़रूर है की जितना तमाम विश्व का सुख इक्ट्ठा होकर भी मुक़ाबला नहीं कर सकता
- ज्ञानी भक्त या संप्रदाय का बहस
- देखो हमारे संसार में २ भाई होते हैं छोटे छोटे ४ साल ले जब लड़ते हैं तो १ दूसरे को गाली देते हैं माँ की बाप की, तो माँ बाप सुन कर हँसते हैं, देखो देखो ये रमेश दिनेश को क्या कह रहा है ? हाँ बच्चा है, भोला है, ऐनऽऽ माँ को गाली दे रहा है वो गाली कहाँ से सीखा उसने ? पड़ोस से सिख लिया होगा या उसके बाप ने कभी दिया होगा किसको या उसके बड़े भाई ने दिया होगा, उससे उसने याद कर लिया की जब गुस्सा आता है तो ऐसा बोलते हैं लोग, सबकी आदत है कुछ न कुछ बोलने की, कोई गंदी गंदी गाली याद कर लेता है तो गंदी गंदी गाली देता है, तो ऐसे ही संसार में लड़ते हैं भोले भाले लोग, ज्ञानी और भक्त, भक्त भक्त अलग अलग संप्रदाय के
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